Monday, December 16, 2013

" गाँव की छाँव "

                                                           
धूल पूरित उस डगर पर लोटती मैँ खेलती
 खिलखिलाती बेलियोँ को चूमती व सूंघती
 अरहरोँ की डालियोँ से मुस्कुरा के पूछती...
सुन ! बसंती  पवन मेँ किस तरह तूं झूलती ?
 
भोर की पहली किरण ज्योँ स्वर्ण विखरी खेत मेँ
ओस विखरी दूब पे यूं मोतियोँ के वेश मेँ ;
पीले सरसोँ की महक, रुप को संभालती
 गाँव के पनघट पे बैठी मस्त घटा सी झूमती ।
 सुन ! फुदकती डालियोँ पर खग सभा को देख कर
 नील लव लव भरे गगन को किस तरह तूं चूमती ?
 
आम्र लद-लद डालियोँ पर ऊँघती व झूलती,
गुल से लिपटी तितलियोँ को छेड़ती व पूछती...
छोटे तेरे पँख हैँ,सौ रंग इसमेँ हैँ भरे,
ऐ सुहानी मस्त अल्हड़ किस डगर पे तूं चली ?!
 
 झूमती बचपन हमारी खेलती उस छाँव मेँ,
याद आयी वो दोपहरी गुजरी है जो गाँव मेँ
छाँव पीपल कि प्यारी व सुहानी सांझ थी,
दीप झिल मिल ज्योँ सितारे जुगनू की बारात थी।
 
दूर खलिहानो से उड़ती धूल की डोली उठी
मस्त वृष के गले लिपट घंटियाँ भी बोलती
छोड़ बाबुल की गली बेटियाँ घर को चली
गाँव के इस छाँव मेँ खेली नन्ही कली,
 पुष्प बन सुवाशित करे अब और की बगिया कहीँ।

 

 
 
:-)

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